१। द्रष्टा जो पुरुष है और दृश्य जगत है।
२। उस द्रष्टा और दृश्य के बुद्धी से मिलाप में आनंद होता है।
३। इष्ट के संयोग और अनिष्ट के वियोग का आनंद चित्त में दृढ़ होता है।
४। द्रष्टा, दर्शन और दृश्य को वासना का त्याग करना चाहिए| जो दर्शन से प्रकाशित होता है और जिसके प्रकाश से यह तीनों (द्रष्टा और दृश्य और बुद्धी) प्रकाशित होते हैं।
५। सम्पूर्ण-आनंद आत्मतत्व से उदय होता है | उस आत्म-तत्व (आत्मा) की हम उपासना करते हैं| जो निराभास और निर्मल है, जिसमे मन का अभाव है, वह अद्वैतरूप है|
६। अद्वैत आत्मा, द्रष्टा, दृश्य दोनों के मध्य में है और अस्ति नास्ति दोनों पक्षों से रहित सत्ता है यही सूर्य आदिक को भी प्रकाशता है|
७। जो ईश्वर सकार और हकार है, सकार -जिसके आदि में है और हकार -जिसके अंत में है। वह अंत से रहित, आनंद, अनंत, शिव, परमात्मा सर्वजीवों के ह्रदय में स्थित है।
८। जो हृदय में स्थित वह ईश्वर है उसे त्यागकर, जो देवों को पाने का यत्न करते हैं, वे पुरुष कौस्तुभमणि को त्यागकर और रत्नों की इच्छा करते हैं |
९। जो सब आशाओं को त्याग देते हैं उन्हें फल प्राप्त होता है। अर्थात जन्म-मरण आदि दुःख नष्ट हो जाते हैं और फिर नहीं उपजते|
१०। जो पदार्थों को अत्यंत विरसरूप जानता है और स्वयं को आशा रूपी विषबेल से बांधता है, वह दुर्बुद्धि, गर्धभ है -मनुष्य नहीं| जब-जब विषयों की ओर दृष्टी उठे उसे अपने विवेक से नष्ट करो। जब इस प्रकार शुद्ध आचरण करोगे तब संभाव को प्राप्त होगे और उससे आत्मपद को प्राप्त होकर अक्षय अविनाशी हो जाओगे|